कहानी ५२: पहाड़ी उपदेश : हत्या के प्रति राज्य कानून

मत्ती ५ः२१-२६

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यीशु ने पुराने नियम के कानून और भविष्यवाणियों को समय के अंत तक अटूट और सच्चा रहने के लिए घोषित कर दिया। अपने स्वयं जीवन में भी, यीशु ने पूर्णता में होकर अपने आसमानी बाप के आज्ञाकारी होते हुए इन को माना। कितनी सामर्थ! घिनौने पाप के प्रति कितनी साहस!

यीशु चाहता था कि उसके चेलों के पास भी वही सम्मानजनक सामर्थ हो। वह चाहता था कि वे उसके पिता के लिए आज्ञाकारिता में जीयें। लेकिन एक समस्या थी।यीशु के सुनने वालों में से अधिकांश लोग अपने यहूदी नेताओं की शिक्षाओं के नियमों को जोड़ रहे थे। वे लोगों के विचारों को परमेश्वर के वचनों को  समझते थे और उनको एक साथ मिला देते थे। लोग यह नहीं समझ पाते थे कि  कब वे शुद्ध, उज्जवल, और पवित्र वचन सुन रहे हैं और कब पापी लोगों के विचारों को सुन रहे हैं। जब वे परमेश्वर के आज्ञाकारी होते थे, इनको ये अग्वे गलत रास्ता दिखा देते थे। वे बुरे विचारों को मानते थे। सब कुछ बिगड़ गया था!

परमेष्वर के रास्तों में और मनुष्य के रास्तों के बीच के फर्क को यीशु अच्छी तरह जानता था। यीशु इसको स्पष्ट करना चाहता था। पहाड़ पर दिए उपदेश में, यीशु ने मन के दीन और शुद्ध मन वालों को छे उदाहरण दिए कि कैसे परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करना है।

जब यीशु एक एक उदहारण दे रहे थे, उन्होंने कहा "तुमने उन्हें कहते सुना।" तन वह नियम को दोहराएगा जो यहूदियों ने इतनी गम्भीरता से सिखाये। फिर वह कहेगा, "लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ…" वाह। यह बहुत विशाल है। यीशु उन धर्म नेताओं को उनके मूह पर यह कह रहे थे कि वे परमेश्वर कि आज्ञाओं को बेहतर तरीके से समझते हैं। परन्तु बात यह है, उसको अधिकार था। उसी ने उनको नियम दिए थे!

नियम को अच्छी तरह समझने के वालों को यीशु ने और बेहतर उदाहरण दिए कि रोज़ के दिनचर्य में यह कैसा लगता है। समझते थे कि रोज़ के निर्णय कैसे बदले जाएं वह सब बदलने वाला था। यहाँ तक के उनके दिमाग में विचार थे वो भी शुद्ध किये जाएंगे!

जैसे जैसे आप पड़ते जाते हैं, आप देखेंगे कि कैसे यीशु हर नियम को भेदनेवाला और शुद्ध आशा रूप में दिखता है। सोचिये यह कितनी ख़ूबसूरत दुनिया होगी अगर सब इन नियमों को अपने दिल कि गहराई से मानने लगें। सोचिये स्वर्ग कैसा होगा जब हम पूर्ण रूप से सरे श्राप से मुक्त होंगे। यीशु के द्वारा, हम सब पापों से मुक्त होंगे।

पहला नियम जिसे यीशु सच्चाई के साथ दिखाना चाहता थे वो था छटवी आज्ञा। निर्गमन 20:13 में लिखा है, “तुम्हें किसी व्यक्ति की हत्या नहीं करनी चाहिए।”इन शब्दों से साफ़ पता चलता है कि परमेश्वर नहीं चाहता कि हम किसी कि हत्या करें। लेकिन इस नियम कि गहराई और गहरी है। यह हत्या से ज़यादा कुछ और था। दूसरे व्यक्ति के पूर्ण जीवन को सम्मान देना था। हर व्यक्ति के एक एक अंग को मृत्यु तक सम्मान देना है जिसे परमेश्वर ने बनाया है। यीशु के समय के यहूदी ऐसा कदाचित नहीं करना चाहते थे। दूसरों को छोटा करार देना और उनका न्याय करने में ही वे आनंद मानते थे। उनके उद्देश्य बहुत तुच्छ थे। यीशु यह सब ठीक करने वाला था।उसने कहा, तुम जानते हो कि हमारे पूर्वजों से कहा गया था ‘हत्या मत करो और यदि कोई हत्या करता है तो उसे अदालत में उसका जवाब देना होगा।’

अब यीशु इस आज्ञा कि गहराई को समझने वाले थे:
"'किन्तु मैं तुमसे कहता हूँ कि जो व्यक्ति अपने भाई पर क्रोध करता है, उसे भी अदालत में इसके लिये उत्तर देना होगा.... और यदि कोई अपने किसी बन्धु से कहे ‘अरे असभ्य, मूर्ख।’ तो नरक की आग के बीच उस पर इसकी जवाब देही होगी।'"

छटवा नियम न केवल किसी कि हत्या न करना है। यह इस विषय में भी है कि हर एक व्यक्ति दुसरे के प्रति कैसा रवैया रखता है। अधिकतर लोग अपने सारे जीवन भर हत्या ही नहीं करते रहेंगे। लेकिन वे मन में हत्या करन का गहरा क्रोध, द्वेष और नफरत जैसी भावनाएं रखते हैं और वे उन्हें बहुत सी विनाशकारी तरीकों से दिखा सकते हैं। गुस्सा दिखाना, तिरस्कार करना और दूसरों को अपमानित करना यह सब बदला लेने के रूप हैं। हम एक दूसरे को इन बातों से नष्ट कर सकते हैं। हम शायद शरीर को नुंकसान ना पहुचाएं, परन्तु हम उनकी आत्मा को धर दार कर रहे हों। ऐसी बातों का स्वर्ग के राज्य में कोई स्थान नहीं है।

एक विनम्र हृदय निरंतर इन बातों से शुद्ध होना चाहेगा। परमेश्वर के राज्य के लिए जो चेला योग्य होना चाहेगा, वह अपने रिश्ते दूसरों के साथ रखने में सावधान रहेगा, और वे निरंतर ऐसी भावनाओं से अपने ह्रदय को बचा के रखता है।

यीशु अपने चेलों को कुछ बातें समझाता है जिससे वे इन विचारों कि अच्छाइयों पर जी सकते हैं। यूं समझ लीजिये कि आपने कुछ ऐसा किया जिससे कि कोई दूसरा अपमानित  हुआ। आप जानते हैं कि आप गलत हैं। एक शुद्ध ह्रदय वाला व्यक्ति चाहेगा कि सब ठीक रहे इसिलिये वह दौड़ के उस व्यक्ति के पास जाएगा और क्षमा मांगेगा। वास्तव में यदि आप कुछ बहुत धार्मिक कार्य भी कर रहे हों, और आप को लगता है कि आप कोई रुक जाना चाहिए। सबसे धार्मिक कार्यों से अधिक ज़रूरी मेल मिलाप और समझौता करना है। प्रेम दिखाना परमेश्वर को सबसे बड़ा तोहफा है!

यीशु ने आगे समझाया कि परमेश्वर को भेंट चढ़ाना गलत होगा अगर हमारे दिल में अपने भाई बहनों के प्रति मन में गुस्सा रखते हैं। यदि कोई कोर्ट में जाता है तो उसे सब कुछ न्यायी के सामने जाने से पहले सब कुछ ठीक कर लेना चाहिए।

अब, गलत है? आपको याद है कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने उन धार्मिक नेताओं को क्या कहा था? उसने कहा कि वे ज़हरीले सांप के समूह के सामान हैं। उसने उनको ज़हरीला सांप इसलिए कहा क्यूंकि यीशु ने भी उनको यही कहा क्यूंकि वे थे, और वह बहुत क्रोधित था। क्या यीशु पाप कर रहा था? नहीं! बिलकुल नहीं! जब यीशु और यूहन्ना ने यह शब्द कहे, वे अन्याय और पाप के विरुद्ध बोल रहे थे। वे धार्मिकता के लिए खड़े थे, और यह अच्छी और शुद्ध बात है जो करनी चाहिए।

जब हम बहुत सी कठोर बातें कह जाते हैं, यह सच्चे न्याय के द्वारा निकला हुआ नहीं है। अधिकतर समय, जब हम किसी को अपमानित या नीचा दिखाते हैं, यह हमारे द्वेष, और घमंड और जलन के कारण होता है। यह एक बहुत बड़ा पाप है। परमेश्वर के राज्य का एक सच्चा चेला इन पाप से भरे रास्तों पर विजय पाने के लिए परमेश्वर कि सामर्थ पर भरोसा करेगा। यह बहुत कठिन हो सकता है! इंसान इन बुरे विचारों को बहुत जल्दी दिल से लगा लेता है! जल्द से जल्द क्षमा मांग कर ही इनसे छुटकारा पाया जा सकता है। यीशु के चेले होने के नाते, सब द्वेष, और दूसरों के प्रति नकचढ़ापन इन सब को नष्ट कर देना चाहिए और परमेश्वर कि आत्मा को अपने जीवन में काम करने देना चाहिए। यह स्वादिष्ट नमक के समान होगा! यह उस ज्योति के समान होगी जो लोगों को परमेश्वर के राज्य का रास्ता दिखाता है!